Apathit Gadyansh in Hindi | Unseen Passage in Hindi

By | July 27, 2022
Apathit Gadyansh in Hindi

Apathit Gadyansh in Hindi ये ऐसे गद्यांश होते हैं जिन्हें छात्रों ने कभी नहीं पढ़ा होता। इस प्रकार के गद्यांश देकर विद्यार्थियों से उन पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं. हमने विद्यार्थियों के लिए कुछ और Unseen Passage in Hindi with Answer भी प्रस्तुत किये हैं.

निम्नलिखित गद्धांशों को पढ़कर उनसे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –

1. जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए संतुलित आहार की जरूरत है, उसी तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी पुस्तकें अनिवार्य हैं. अच्छी पुस्तकें वे हैं, जो मानसिक पोषण दे सके, बच्चों को सहजभाव से संस्कारवान बना सके. ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिए कुछ नहीं लिखा जा रहा है. लेकिन बाल -लेखन में ऐसा ढेर सारा लेखन है जो या तो बच्चे को कोरी स्लेट मानकर लिखा जा रहा है या यह सोच कर कि यह बच्चे को जानना ही चाहिए. भले ही उस लेखन का बच्चे के व्यवहारिक जीवन से कोई लेना-देना न हो. बच्चों के लिए जो लिखा जाए, यह विचार किया जाना चाहिए कि उसका प्रभाव क्या होगा ? इस समय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की धूम है. इसका त्वरित प्रभाव भी नजर आ रहा है. बहुत सारी चिंताजनक विकृतियों को जन्म हो रहा है. बच्चों की सहजता तिरोहित होती जा रही है. ऐसे कितने अभिभावक या रिश्तेदार हैं जो जन्मदिन के अवसर पर बच्चों को उपहार में पुस्तकें देते हैं ? मैं समझता हूं, न के बराबर. खिलौने में अगर पिस्तौल दी जाएगी तो वह उसके कोमल मन को एक दिन गलत दिशा में ले जाएगी. बच्चों को उनकी रुची के अनुकूल अगर किताबें मिलेंगी तो वे जरूर पड़ेंगे.
प्रश्न –
1.अच्छी पुस्तकों की आवश्यकता क्यों है ?
2.अच्छी पुस्तकें किन्हें कह सकते हैं ?
3.आजकल बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तकें किस प्रकार की होती हैं ?
4.इलेक्ट्रानिक मीडिया का बच्चों पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है ?
5.बच्चों में पुस्तकें पढ़ने की रुचि जगाने के लिए क्या किया जाना चाहिए ?
6.उपहारों का बच्चों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

2. स्वामी विवेकानंद का एक शिष्य उनके पास आया और बोला, “स्वामी जी, मैं आप की तरह भारत की संस्कृति का प्रचार करने के लिए अमेरिका जाना चाहता हूं. आप मुझे विदेश जाने हेतु अपना आशीर्वाद दें.” स्वामी जी ने कहा, ‘सोच कर बताऊंगा.’ शिष्य हैरत में पड़ गया. शिष्य समझ गया कि स्वामी जी उसे भेजना नहीं चाहते इसलिए ऐसा कह रहे हैं. वह उनके पास रुक गया. दो दिनों बाद स्वामी जी ने उसे बुलाकर कहा, तुम अमेरिका जाना चाहते हो तो जाओ. मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है.’ शिष्य ने सोचा कि स्वामी जी ने यह बात सोचने में दो दिन क्यों लगा दिए. उसने अपनी दुविधा स्वामी जी के सामने रखी. स्वामी जी ने कहा, ‘इन दो दिनों में मैं तुम्हारी सहन शक्ति को परखना चाहता था. लेकिन तुम निर्विकार भाव से मेरे आदेश की प्रतीक्षा करते रहे. न क्रोध किया और न धैर्य खोया. जिसके अंदर इतनी सहनशक्ति व गुरु के प्रति प्रेम होगा. वह शिष्य कभी भटकेगा नहीं. अपने देश की संस्कृति दूसरों तक पहुंचाने के लिए ज्ञान के साथ धैर्य, सयंम व विवेक की आवश्यकता होती है. मैं इसी बात की परीक्षा ले रहा था.’
प्रश्न –
1.शिष्य विवेकानन्द जी के पास किसलिए आया था ?
2.स्वामी विवेकानंद के शिष्य को अमेरिका जाने की अनुमति तुरंत क्यों नहीं दी ?
3.दो दिन पश्चात स्वामी विवेकानंद ने अपने शिष्य को अमेरिका जाने की अनुमति क्यों दी ?
4.एक शिष्य में कौन – सी विशेषता होनी चाहिए ?
5.अपनी संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के लिए किस चीज की जरूरत होती है ?
6.शिष्य अमेरिका जाकर क्या करना चाहता था ?

3. परोपकार का शाब्दिक अर्थ है – दूसरों का भला. दूसरों की भलाई के बारे में सोचना तथा उसके लिए कार्य करना महान गुण है. यदि सभी अपने गुणों को अपनी मूर्तियों में कैद कर ले तो यह सृष्टि – चक्र पल – भर के लिए भी न चले. वृक्ष अपने लिए नहीं, औरों के लिए फल धारण करते हैं. नदियां भी अपना जल स्वयं नहीं पीती. परोपकारी मनुष्य संपत्ति का संचय भी औरों के कल्याण के लिए करते हैं. मानव जीवन भी एक दूसरे के सहयोग पर निर्भर है. अपने प्रियजनों के लिए कुछ करना अलग बात है. परंतु अपने – पराए सबके लिए कर्म करना सच्चा परोपकार है. भारत में परोपकारी महापुरुषों की कमी नहीं है. यहां दधीचि जैसे ऋषि हुए जिन्होंने अपनी जाति के लिए अपने शरीर की हड्डियां दान में दे दी. बुद्ध, महावीर, अशोक, गांधी, अरविंद जैसे महापुरुषों के जीवन परोपकार के कारण ही महान बन सके हैं. परोपकारी व्यक्ति सदा प्रसन्न, निर्मल और हंसमुख रहता है. वह पूजा के योग्य हो जाता है.
प्रश्न –
1.परोपकार का सृष्टि चलाने में क्या योगदान है ?
2.परोपकार के उदाहरण प्रकृति में से दीजिए.
3.किन्ही तीन परोपकारी महापुरुषों के उदाहरण दीजिए.
4.सच्चा परोपकार किसे कहा गया है ?
5.क्या अपने प्रियजनों के लिए कल्याण करना सच्चा परोपकार है ?
6.परोपकारी व्यक्ति के जीवन में कौन – सी महानता आ जाती है ?

4. शिक्षा व्यक्ति और समाज दोनों के विकास के लिए अनिवार्य है. अज्ञान के अंधकार में जीना तो मृत्यु से भी अधिक कष्टकर है. ज्ञान के प्रकाश से ही जीवन के रहस्य खुलते हैं और हमें अपनी पहचान होती है. शिक्षा मनुष्य को मस्तिष्क और देह का उचित प्रयोग करना सिखाती है. वह शिक्षा जो मानव को पाठ्य – पुस्तकों के ज्ञान के अतिरिक्त कुछ गंभीर चिंतन न दें व्यर्थ है. यदि हमारी शिक्षा सुसंस्कृत, सभ्य, सच्चरित्र एवं अच्छे नागरिक नहीं बना सकती, तो उसे क्या लाभ ? सह्रदय, सच्चा परंतु अनपढ़ मजदूर स्नातक से कहीं अच्छा है जो निर्दय व चरित्रहीन है. संसार के सभी वैभव व सुख साधन भी मनुष्य को तब तक सुखी नहीं बना सकते जब तक कि मनुष्य को आत्मिक ज्ञान न हो. हमारे कुछ अधिकार व उत्तर दायित्व भी हैं. शिक्षित व्यक्ति को अपने उत्तर दायित्यों और कर्तव्यों का उतना ही ध्यान रखना चाहिए जितना कि उत्तर दायित्यों का क्योंकि उत्तर दायित्व निभाने और कर्तव्य करने के बाद ही हम अधिकार पाने के अधिकारी बनते हैं.
प्रश्न –
1.व्यक्ति और समाज के विकास के लिए क्या चाहिए ?
2.शिक्षा क्या सिखाती है ? कौन – सी शिक्षा व्यर्थ है ?
3.कौन – सा अनपढ़ मजदूर स्नातक से अच्छा है और क्यों ?
4.संसार के सभी वैभव सुख साधन मनुष्य को कब तक सुखी नहीं बना सकते हैं ?
5.हम अधिकार पाने के अधिकारी कब बनते हैं ?

5. हमारे समाज में बहुत से लोग भाग्यवादी होते हैं और सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़कर कर्म से विरत हो बैठते हैं. ऐसे ही व्यक्ति समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं होने देते. आज तक किसी भाग्यवादी ने संसार में कोई महान कार्य नहीं किया. बड़ी-बड़ी खोजें, बड़े-बड़े आविष्कार और बड़े-बड़े निर्माण के कार्य श्रम के द्वारा ही संपन्न हो सकें हैं. हमारी प्रतिभा हमें प्रेरित कर सकती है, हमारा पथ – प्रदर्शन कर सकती है, जबकि लक्ष्य तक हम कर्म द्वारा ही पहुंचते हैं. जब हम परिश्रम से अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, तो हमारे मन को अलौकिक आनंद मिलता है. ऐसे व्यक्ति के लिए उसका परिश्रम ही उसकी पूजा है. यदि हम अपने कार्य में ईमानदारी से श्रम नहीं करते, तो हमारे मन में एक प्रकार का भय रहता है. कभी-कभी तो हम ग्लानि का अनुभव भी करते हैं.
प्रश्न –
1.कैसे लोग समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं होने देते ?
2.सभी बड़े कार्यों के संपन्न होने के पीछे क्या रहस्य है ?
3.हमारे मन को अलौकिक आनंद कब मिलता है ?
4.हमारे मन में डर कब समाता है ?
5.गद्धांश से दो भाववाचक संज्ञा शब्द दूंढ़कर लिखें.

6. निष्कर्ष यह है कि आज हिंदी अंतरराष्ट्रीय भूमंडलीकरण युग की विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है. इसका वर्तमान या भविष्य तो उज्जवल है ही परंतु सारे विश्व में हमारी भाषाओं की मूल जड़ भी मजबूत हो चुकी है. यदि हमारे युवा वैज्ञानिक अपनी मातृभाषाओं एवं राष्ट्रभाषा हिंदी से प्रेम करने लगे व अपने अनुसंधान में अंग्रेजी के साथ अपनी भाषाओं के हिन्दी या संस्कृत के शब्दों का प्रयोग अधिक से अधिक करने लगे तो निश्चित ही उनके इन प्रयासों से भारतीय भाषाएं विश्व में प्रचलित हो जाएंगी. ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया जाए, जिसमें सभी भारतीय भाषाएं हों और विद्यार्थी उसे पढ़ सके तथा उसके माध्यम से विश्व के अंतरराष्ट्रीय ज्ञान को प्राप्त कर सकें. किन्तु एक बात हमें नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजी का पूर्ण बहिष्कार करके हम विश्व को नवीनतम गतिविधियों से कट जाएंगे. इसलिए भाषाओं के मामले में संतुलन जरूरी है.
प्रश्न –
1.हिंदी पर भूमंडलीकरण के प्रभाव से हिंदी को क्या लाभ हुआ है ?
2.अंग्रेजी का बहिष्कार करने का क्या परिणाम होगा ?
3.विद्यार्थियों की सुविधा के लिए किस प्रकार के सॉफ्टवेयर की आवश्यकता है ?
4.भारतीय भाषाओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलन में लाने के लिए किनके विषय योगदान की आवश्यकता है ?
5.‘सभी लोग उसे पढ़ें और अंतरराष्ट्रीय स्तर का ज्ञान प्राप्त करें’ – यह किस प्रकार का वाक्य है ?

7. दरअसल हम अपनी समस्याओं की चर्चा बहुत बढ़ा – चढ़ा कर करते हैं. समस्याएं आने पर हम दूसरों की सहानुभूति चाहते हैं. लेकिन सहानुभूति या दया से कोई समस्या हल नहीं होती. दरअसल हम मुश्किलों का रोना रोते हैं, लेकिन कभी समाधान के बारे में नहीं सोचते. हम हथियार डालते हुए यह मान लेते हैं, जैसे बड़ी भारी मुसीबत आ गई हो. दिन – रात इसी मुसीबत के बारे में सोचते रहते हैं, समस्या दिलो-दिमाग पर पूरी तरह छा जाती है. इस पूरी प्रक्रिया में स्वयं द्वारा किए गए कार्यों का मूल्यांकन करना भूल जाते हैं. यदि हम ऐसा करें, तो हो सकता है कि ऐसी स्थिति से बाहर निकलने में मदद मिल जाए. परिस्थितियों का ठीक – ठाक मूल्यांकन करके आप आसानी से समाधान तक पहुंच सकते हैं. किसी भी समस्या का हल उसकी जड़ में होता है. यदि आप गलत नहीं है तो हताशा से उबरने के लिए साहस से काम लीजिए. सफलता की सड़क पर चलने के दौरान केवल एक पत्थर का टुकड़ा उठाकर नहीं फेंकते, बल्कि एक तरह से पहाड़ तोड़ने का काम करते हैं.
प्रश्न –
1.किस उपाय से हमारी समस्या सुलझ सकती है ?
2.‘हथियार डालने’ का क्या अर्थ है ?
3.दिन-रात समस्या पर सोचने का क्या दुष्परिणाम होता है ?
4.हमें साहस की आवश्यकता किसलिए पड़ती है ?
5.हम अपनी समस्याओं को बढ़-चढ़कर चर्चा क्यों करते हैं ?
6.गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए.

8. बाल मनोविज्ञान की परख, कथानक की नवीनता और उसकी सहज प्रस्तुति द्वारा प्रेमचंद ने भारतीय बालसाहित्य को न केवल नई दिशा दी, बल्कि उसे समसामयिक में समृद्ध भी किया. पाठकों ने भी इन कहानियों को हाथों – हाथ लिया. हालांकि प्रेमचंद के समय और उनके बाद साहित्यकारों का बड़ा वर्ग लगातार ऐतिहासिक एवं पौराणिक कहानियों के प्रस्तुतिकरण की हिमायत करता रहा.
जहां तक हिंदी बालसाहित्य को स्वतंत्र पहचान मिलने का सवाल है उसकी शुरुआत आजादी के बाद और मुख्यतः छठे दशक से मानी जा सकती है. इसी बीच हिंदी बालसाहित्य ने लंबी यात्रा तय की है. प्रकाशन संबंधी सुविधाओं, शिक्षा के प्रसार, वैज्ञानिक चेतना आदि के चलते आज बड़ी मात्रा में बाल साहित्य लिखा जा रहा है. इसी बीच में उत्कृष्ट रचनाएं बालसाहित्य के नाम पर आई हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं.
प्रश्न –
1.‘हाथों – हाथ लेना’ का क्या तात्पर्य है ?
2.प्रेमचंद के बाल साहित्य की तीन विशेषताएं लिखिए ?
3.प्रेमचंद के युग में भी कुछ साहित्यकार कैसी कहानियों का प्रस्तुतीकरण चाहते थे ?
4.हिंदी बाल साहित्य की शुरुआत कब से हुई उसके विकास में किन-किन परिस्थितियों का योगदान है ?
5.‘शुरुआत’ किस प्रकार का शब्द है ?
6.‘इसी बीच बाल – साहित्य ने लंबी यात्रा तय की है’ – वाक्य का प्रकार बताइए.

9. वस्तुतः क्रोध एक नकारात्मक भाव है इस तरह के नकारात्मक भावों से मनुष्य के रिश्तो में दरार पड़ जाती है. यह सच है कि क्रोध का प्रारंभ चाहे मूर्खता से ही क्यों न हुआ हो पर उसका अंत पश्चाताप से होता है. हम सब कुछ जानते हुए भी इससे स्वयं को दूर नहीं रख पाते. यदि हम इस पर नियन्त्रण नहीं कर सकते हैं तो भी उसे रचनात्मक बनाकर इससे होने वाली बीमारियों और हानियों से तो बच सकते हैं. यदि किसी पर क्रोध आए तो उसी क्षण उस व्यक्ति की हास्यास्पद तस्वीर मन में बना ले या किसी चुटकुले का पात्र ही उसे बना दे और पेन तथा डायरी लेकर कुछ भी लिखने बैठ जाएं. कुछ न बने तो आड़ी – तिरछी रेखाएं ही खींच लें. धीरे – धीरे कलात्मकता नजर आएगी. विचारों को कविता या लेख ढालने का प्रयत्न करें. इससे आप अपने जीवन की लंबी दौड़ में अधिक सुखी और स्वस्थ रह सकते हैं.
प्रश्न –
1.क्रोध का क्या दुष्परिणाम होता है ?
2.क्रोध की रचनात्मक कैसे बनाया जा सकता है ?
3.क्रोध का अंत किस प्रकार होता है ?
4.‘आड़ी – तिरछी’ में कौन – सा समास है ?
5.‘नकारात्मक’ का विपरीतार्थक शब्द लिखिए.

10. महात्मा जी ने एक दिन प्रार्थना में कहा था कि – “मुझे जितना ज्ञान ज्यादा होता जाता है, उससे मैं तो यह जानता हूं कि शहरी लोगों का देहातियों से घनिष्ट संबंध है. मैं तो कहूंगा कि जो कुछ हिंदुस्तान में मिलता है, वह किसानों के ही मार्फत मिलता है”. यदि वे लोग इंकार कर जाएं, आपके लिए कार्य नहीं करें तो आपको भूखा मरना पड़ेगा और उसमें महाराजा साहब का भी नंबर आ जाए और सेठ हुकुमचंद का भी नंबर आ जाए क्योंकि कोई भी चांदी या सोने से पेट नहीं भर सकता वह मेरी तरह सत्याग्रह करके नहीं, किंतु यह कहकर इंकार करें कि हमें भरपेट भोजन नहीं मिलता तो हम भूखे रहकर काम कैसे करें तो शहरी लोगों को बड़ी मुसीबत उठानी पड़े.” अतएव यह परम आवश्यक है कि किसानों को उनके परिश्रम का उचित मूल्य मिले. ऐसा किए बिना सभी एक दिन परेशानी में पड़ जाएंगे. इसलिए मूल्य सुधार करो और जमीनों को हड़पना बंद करो. यह मेरा सुझाव है अन्यथा भूखे मरने को तैयार हो जाओ शहरवासियों.
प्रश्न –
1.इस गद्यांश का एक शीर्षक दीजिए.
2.शहरवासी और देहातियों में कैसा घनिष्ट संबंध है ?
3.‘शहरवासी किसानों के बल पर ही जीवित हैं’ – सिद्ध कीजिए.
4.शहरवासियों को कब भूखा मरना पड़ सकता है ?
5.किसानों की दशा सुधारने के लिए गद्धांश में क्या सुझाव दिया गया है ?
6.‘हम भूखे रहकर काम कैसे करेंगे’ – वाक्य का प्रकार बताइए.

11. संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है. कुछ भी असंभव नहीं है. असंभव, असाध्य आदि शब्द कायरों के लिए हैं. नेपोलियन के लिए ये शब्द उसके कोष में नहीं थे. साहस के पुतले बापू ने विश्व को चकित कर दिया. क्या बापू शरीर से शक्तिशाली थे ? नही. वे तो पतले से एक लंगोटी पहने लकड़ी के सहारे चलते थे. परंतु उनके विचार सशक्त थे, भावनाएं शक्तिशाली थीं. उनके साहस को देखकर करोड़ों भारतीय उनके पीछे थे. ब्रिटिश साम्राज्य उनसे कांप गया. अहिंसा के सहारे बिना रक्तपात के उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराया. यह विश्व का अद्वितीय उदाहरण है. जब गांधी जी ने अहिंसा का नारा लगाया तो लोग हंसते थे, कहते थे अहिंसा से कहीं ब्रिटिश साम्राज्य से टक्कर ली जा सकती है. परंतु वे डटे रहे, साहस नहीं छोड़ा. अंत में अहिंसा की ही विजय हुई. कहते हैं अकेला चना क्या भाड़ फोड़ सकता है ? फोड़ सकता है, यदि उसमे साहस हो तो.
प्रश्न –
1.किस भारतीय महापुरुष ने असंभव को संभव कर दिखाया और कैसे ?
2.नेपोलियन और बापू में कौन सी बात समान थी ?
3.विश्व का सबसे अद्वितीय उदाहरण किसे कहा गया है और क्यों ?
4.गांधी जी ब्रिटिश साम्राज्य से जिस अस्त्र को लेकर लड़े वह कौन – सा अस्त्र था ?
5.‘अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है’ – का अर्थ स्पष्ट कीजिए.
6.इस गद्यांश का उचित शीर्षक बताइए.

12. जल ही जीवन है. जल और मानव जीवन का घनिष्ठ संबंध है. जल की उपयोगिता, शीतलता और निर्मलता से सब परिचित हैं. विश्व की प्रमुख संस्कृतियों का जन्म बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे ही हुआ है. नल के नीचे नहाने और जलाशय में डुबकी लगाने में जमीन – आसमान का अंतर है. आज सर्वत्र सहस्त्रों व्यक्ति प्रतिदिन सागरों, नदियों, झीलों में तैराकी का आनंद उठाते हैं एवं शरीर को भी स्वस्थ रखते हैं. स्वच्छ तथा शीतल जल में तैरना तन को स्फूर्ति व मन को शांति प्रदान करता है. आज तैराकी एक कला के रूप में गिनी जाने लगी है. विश्व में जो भी खेल प्रतियोगितायें आयोजित की जाती हैं. उनमें तैराकी प्रतियोगिता अनिवार्य रूप से सम्मिलित की जाती है. तैराकी व्यायाम है और खेल तथा मनोरंजन का प्रिय साधन भी है. यानी आम के आम गुठलियों के दाम. यदि आप तैरना जानते हैं तो नदी किनारे खड़े होकर थोड़ी भी प्रतीक्षा करने की ज़रूरत नहीं. तैरकर नदी पार कीजिये और स्वस्थ्य भी बनाइयें. साथ ही साथ कला में निपुण होकर तैराकी प्रतियोगिताओं में भाग लेकर आप विजय और ख्याति का अपार आनंद प्राप्त कर सकते हैं.
प्रश्न –
1.विश्व की संस्कृतियों के विकास में जल की क्या भूमिका है ?
2.जल और जलाशय से स्नान में क्या अंतर है ?
3.जल और मानव – जीवन में क्या संबंध है ?
4.जीवन के आनंदों में जल की क्या भूमिका है ?
5.गद्दांश में प्रयुक्त लोकोकित ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ का क्या अर्थ है ?

13. भारत में गुरु – शिष्य संबंध का वह भव्य रूप आज साधुओं, पहलवानों और संगीतकारों में ही थोड़ा – बहुत ही सही, पाया जाता है. भगवान राम कृष्ण बरसों योग्य शिष्य को पाने के लिए प्रार्थना करते रहे. उनके जैसे व्यक्ति को भी उत्तम शिष्य के लिए रो – रोकर प्रार्थना करनी पड़ी थी. इसी से समझा जा सकता है कि एक गुरु के लिए उत्तम शिष्य कितना महंगा और महत्वपूर्ण है. संतानहीन रहना उन्हें दुख नहीं देता बगैर सिर्फ के रहने के लिए एकदम तैयार नहीं होते. इस संबंध में भगवान ईशा का एक कथन सदा स्मरणीय है. उन्होंने कहा था – “मेरे अनुयायी लोग मुझसे कहीं अधिक महान हैं और उनकी जूतियां होने के योग्यता भी मुझमें नहीं है. यही बात है, गांधी जी बनने की क्षमता जिनमे है उन्हें गांधीजी अच्छे लगते हैं और वे ही उनके पीछे चलते भी हैं. विवेकानंद की रचना सिर्फ उन्हें पसंद आएगी जिनमें विवेकानंद बनने की अद्भुत शक्ति निहित है.”
प्रश्न –
1.उपर्युक्त शीर्षक बताइए.
2.ईसा मसीह अपने शिष्यों को अपने से महान क्यों मानते हैं ?
3.भारत में गुरु – शिष्य – संबंध आजकल किन लोगों में पाया जाता है ?
4.कौन लोग विवेकानंद की रचना को पसंद करते हैं ?
5.‘रचना’ का विलोम लिखिए.

14. भारतवर्ष का कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है. आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है. धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है. यही कारण है कि जो लोग धर्म भीरु हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते. इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर – भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज है. अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं. वे दब अवश्य गए हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए. आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुंचाने को पाप समझता है, हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है.
प्रश्न –
1.उचित शीर्षक खोजिए.
2.धर्मभीरु लोग कानून के साथ कैसा व्यवहार करते हैं ?
3.‘आध्यात्मिकता’ में कौन सा उपसर्ग का प्रयोग हुआ है ?
4.धर्म को कानून से बड़ा क्यों माना गया है ?
5.‘दूसरों को पीड़ा पहुंचाना’ के लिए एक शब्द चाहिए.

15.कई लोगों में जरूरत न होने पर भी चीजों को खरीदने और इकट्ठा करने की आदत होती है. यह आदत टी.वी., अखबार आदि के विज्ञापनों से बहुत प्रभावित होती है. समाज में बड़े पैमाने पर मौजूद इस स्थिति को उपभोक्तावाद कहते हैं. उपभोक्तावाद के विस्फोटक पर अब सवाल उठने लगे हैं क्योंकि इसने पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. उपभोक्तावाद अति उपभोग, बेहिसाहब कचरा, उत्पादन और प्रदूषण के दानव तेल संसाधनों की नींव पर खड़ा है. इन जीवाश्म ईधनों ने बेहिसाब मात्रा में प्रदूषण पैदा किया है जो जीवन के विविध रूपों के लिए बेहद विनाशकारी है. नई सदी में पश्चिमी विकसित जगत अपने भविष्य के लिए पर्यावरण की द्रष्टि से भरोसेमंद और टिकाऊ विकल्प खोज रहा है. साइकिल – रिक्शा एक ऐसा ही विकल्प है. यह पूरे एशिया और विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप में परिवहन का एक लोकप्रिय साधन है. भारत में साइकिल रिक्शे का आगमन पिछली सदी यानी 20वीं सदी के पाचवें दशक शुरुआती दौर में हुआ. इससे पहले लकड़ी के पहिएवाले और हाथ से खींचने वाले श्रमसाध्य रिक्शा चलते थे.
प्रश्न –
1.बिना जरूरत चीजों को खरीदने एवं इकट्ठा करने की आदत का क्या कारण है ?
2.उपभोक्तावाद किसे कहते हैं ? इसका क्या दुष्परिणाम हुआ है ?
3.किसने बेहिसाब मात्रा में प्रदूषण पैदा किया है ?
4.भारतीय उपमहाद्वीप में परिवहन का लोकप्रिय साधन क्या है ?
5.पश्चिमी जगत नये और टिकाऊ विकल्प क्यों खोज रहा है ?

16. आज हमारे वर्तमान युग की ऐसी उलझन भरी, दुस्साध्य और भयानक समस्या उपस्थित है जिससे बचा नहीं जा सकता. क्या हम सदा के लिए युद्ध बंद करने की घोषणा कर सकते हैं या इसके विपरीत हम मनुष्य जाति को समूल नष्ट करना चाहते हैं ? यदि हम सदैव के लिए योग्य से विमुख हो जाते हैं तो हम एक ऐसे सुखी समाज का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें ज्ञान व विज्ञान की सतत प्रगति हो रही है. क्या इस स्वर्गीय आनंद के बदले विनाशक मृत्यु को हम इसलिए चाहते हैं, क्योंकि हम अपने झगड़े समाप्त नहीं कर सकते ? हम मनुष्य होने के नाते मनुष्यता के नाम पर यह प्रार्थना करते हैं कि आप सब कुछ भूल कर केवल अपनी मानवता को याद रखें. यदि आप यह कर कर सकते हैं तो निश्चय ही नये व महान भविष्य के लिए रास्ता खुला है किंतु यदि आपको यह मंजूर नहीं है तो आपके सामने मानव – मात्र की मृत्यु का संकट उपस्थित है.
प्रश्न –

1.उपर्युक्त अवतरण का उपयुक्त शीर्षक बताइए.
2.आज हमारे समक्ष भयानक समस्या क्या है ?
3.युद्ध से विमुख होकर हम किस प्रकार के समाज का निर्माण कर सकते हैं ?
4.मनुष्यता के नाम पर क्या प्रार्थना की गई है ?
5.युद्ध होने का मुख्य कारण क्या है ?

17.प्रकृति का संतुलन बिगड़ने की दिशा में मनुष्य पिछले दो-तीन वर्षों के दौरान इतना अधिक बढ़ चुका है कि उसके लिए अब पीछे हटना असंभव – सा लगता है. जिस गति से हम विभिन्न क्षेत्रों में प्रकृति का संतुलन बिगाड़ते जा रहे हैं, उसमें कोई भी कभी व्यवहारिक नहीं प्रतीत होती, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्थायें और दैनिक आवश्यकतायें उस गति के साथ जुड़ – सी गई हैं. क्या हमें ज्ञात नहीं कि जिसे हम अपना आहार समझ रहे हैं, वह वस्तुतः हमारा दैनिक विष है, जो सामूहिक आत्महत्या की दिशा में हमें लिए जा रहा है.
जंगल को ही लो. यह एक प्रकट तथ्य है कि विभिन्न देशों की वन – संपत्ति अत्यंत तीव्र गति से क्षीण होती जा रही है. भारत के विभिन्न प्रदेशों, विशेष का पूर्वांचल के राज्यों, तराई, उत्तर – प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर आदि के जंगल बड़ी संख्या में काटे जा रहे हैं. खूब अच्छी यह तरह जानते हुए भी कि जंगलों को काटने का मतलब होगा – भूमि को आरक्षित करना, बाढ़ों को बढ़ावा देना और मौसमों के बदलने में सहायक बनना.
प्रश्न –
1.प्रकृति का संतुलन बिगड़ने का कार्य कौन कर रहा है ?
2.प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने में कमी व्यवहारिक प्रतीप क्यों नहीं होती ?
3.‘प्राकृतिक’ शब्द में मूल शब्द क्या है ?
4.जंगलों को काटने का क्या मतलब है ?
5.इस गद्दांश के लिए उपयुक्त शीर्षक क्या है ?

18. समस्याएं वस्तुतः जीवन का पर्याय है यदि समस्यायें न हो तो आदमी प्रायः अपने को निष्क्रिय समझने लगेगा. ये समस्या वस्तुतः जीवन की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है. समस्या को सुलझाते समय, उनका समाधान करते समय व्यक्ति का श्रेष्टतम तथ्य उभरकर आता है. धर्म, दर्शन, ज्ञान, मनोविज्ञान इन्हीं प्रयत्नों की देन हैं. पुराणों में अनेक कथाएं यह शिक्षा देती हैं कि मनुष्य जीवन की हर स्थिति में जीना सीखें व समस्या उत्पन्न होने पर उसके समाधान के उपाय सोचे. जो व्यक्ति जितना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करेगा, उतना ही उसके समक्ष समस्याएं आएंगी और उनके परिप्रेक्ष्य में ही उसकी महानता का निर्धारण किया जाएगा.
दो महत्त्वपूर्ण तथ्य स्मरणीय हैं – प्रत्येक समस्या अपने साथ संघर्ष लेकर आती है. प्रत्येक संघर्ष के गर्भ में विजय निहित रहती है. समस्त ग्रंथों और महापुरुषों के अनुभवों का निष्कर्ष यह है कि संघर्ष से डरना अथवा उसे विमुख होना लौकिक व पारलौकिक सभी दृष्टिओं से अहितकर है, मानव – धर्म के प्रतिकूल है और अपने विकास को अनावश्यक रूप से बाधित करना है. आप जागिए, उठिए, द्रण – संकल्प और उत्साह एवं साहस के साथ संघर्ष रुपी विजय – रथ पर चढ़ जाएं और अपने जीवन के विकास के बाधाओं रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कीजिए.
प्रश्न –
1.इस अनुच्छेद का उचित शीर्षक दीजिए.
2.धर्म, दर्शन, ज्ञान आदि किस गुण की देन है ?
3.लेखक का इस बात से क्या आशय है –
‘समस्याएं वस्तुतः जीवन का पर्याय हैं.’
4.जीवन में सफलता किस अनुभव से मिलती है ?
5.लेखक ने पाठकों को क्या प्रेरणा दी है ?

19. हंसी भीतरी आनंद का बाहरी चिन्ह है. जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम – से – उत्तम वस्तु एक बार हंस लेना तथा शरीर को अच्छा रखने की अच्छी से अच्छी दवा एक बार खिलखिला उठना है. पुराने लोग कह गए हैं कि हंसो और पेट फुलाओ. हंसी कितने ही कला – कौशल हवाओं से भली है. जितना ही अधिक आनंद से हंसोगे उतने ही आयु बढ़ेगी. एक यूनानी विद्वान कहता है कि सदा अपने कर्मों पर झीखने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया, पर प्रसन्न मन डेमाक्रीट्स 109 वर्ष तक जिया. हंसी – खुशी का नाम जीवन है. जो रोते हैं उनका जीवन व्यर्थ है. कवि कहता है – ‘जिंदगी जिंदादिली का नाम है मुर्दादिल खाक जिया करते हैं.’
मनुष्य के शरीर के वर्णन का एक विलायती विद्वान ने एक पुस्तक लिखी है. उसमें वह कहता है कि उत्तम सुअवसर की हंसी उदास से उदास मनुष्य के चित्र को प्रफुल्लित कर देती है. आनंद एक ऐसा प्रबल इंजन है कि उसके शोक और दुख की दीवारों को ढहा सकते हैं. प्राण रक्षा के लिए सदा सब देशों में उत्तम से उत्तम उपाय मनुष्य के चित्त को प्रसन्न रखना है. सुयोग्य वैद्ध अपने रोगी के कानों में आनंदरूपी मन्त्र सुनाता है.
प्रश्न –
1.एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए
2.‘हंसी भीतरी आनंद का बाहरी चिन्ह है’ – आशय स्पष्ट कीजिए.
3.आनंद को प्रबल इंजन क्यों कहा गया है ?
4.‘प्रफुल्लित’ में कौन सा उपसर्ग है ?
5. सुयोग्य वैद्ध रोगी के लिए क्या करता है ?

20.संसार के सभी देशों में शिक्षित व्यक्ति की सबसे पहली पहचान यह होती है कि वह अपनी मातृभाषा में दक्षता से काम कर सकता है. केवल भारत ही एक देश है जिसमें शिक्षित व्यक्ति वह समझा जाता है जो अपनी मातृभाषा में दक्ष हो या नहीं, किन्तु अंग्रेजी में जिसकी दक्षता असंदिग्ध हो. संसार के अन्य देशों में सुसंस्कृत व्यक्ति वह समझा जाता है जिसके घर में अपनी भाषा की पुस्तकों का संग्रह हो और जिसे बराबर यह पता रहे कि उसकी भाषा के अच्छे लेखक और कवि कौन है तथा समय-समय पर उनकी कौन सी कृतियां प्रकाशित हो रही हैं. भारत में स्थिति दूसरी है. यहां प्रायः घर में साज – सज्जा के आधुनिक उपकरण तो होते हैं किंतु अपनी भाषा की कोई पुस्तक या पत्रिका दिखाई नहीं पड़ती. यह दुरवस्था भले ही किसी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है किन्तु वह सुदशा नहीं, दुरवस्था ही है और जब तक यह दुरवस्था कायम है, हमें अपने – आप को सही अर्थों में शिक्षित और सुसंस्कृत मानने का ठीक-ठाक न्यायसंगत अधिकार नहीं है.
प्रश्न –
1.उपयुक्त शीर्षक लिखिए.
2.‘दुरवस्था’ में कौन – सा उपसर्ग है ?
3.यहाँ किस ऐतिहासिक प्रक्रिया की ओर संकेत है ?
4.भारत में शिक्षित व्यक्ति किसे माना जाता है ?
5.संसार के अन्य देशों में सुसंस्कृत व्यक्ति किसे मानते हैं ?

21.भारत भयंकर अंग्रेजी – मोह की दुरवस्था से गुजर रहा है. इस दुरवस्था का एक भयानक दुष्परिणाम यह है कि भारतीय भाषाओं के समकालीन साहित्य पर उन लोगों की दृष्टि नहीं पड़ती जो विश्वविद्यालयों के प्रायः सर्वोत्तम छात्र थे और अब शासन – तंत्र से ऊंचे ओहोदों पर काम कर रहे हैं. इस दृष्टि से भारतीय भाषाओं के लेखक केवल यूरोपीय और अमेरिकी लेखकों से ही हीन नहीं हैं, बल्कि उनकी किस्मत मिस्र, वर्मा, इंडोनेशिया, चीन और जापान के लेखकों की किस्मत से भी खराब है क्योंकि इन सभी देशों के लेखकों की कृतियाँ वहां के अत्यंत सुशिक्षित लोग भी पढ़ते हैं. केवल हम ही हैं जिनकी पुस्तकों पर यहां के तथाकथित शिक्षित समुदाय की दृष्टि प्रायः नहीं पड़ती. हमारा तथाकथित उच्च शिक्षित समुदाय जो कुछ पढ़ना चाहता है, उसे अंग्रेजी में ही पढ़ लेता है, यहां तक कि उसकी कविता और उपन्यास पढ़ने की तृष्णा भी अंग्रेजी की कविता और उपन्यास पढ़कर ही समाप्त हो जाती है और उसे यह जानने की इच्छा ही नहीं होती कि शरीर से वह जिस समाज का सदस्य है उसके मनोभाव उपन्यास और काव्य में किस अदा से व्यक्त हो रहे हैं.
प्रश्न –
1.उपयुक्त शीर्षक दीजिए.
2.भारतीय लेखकों की किस्मत खराब है – क्यों ?
3.भारतीय भाषाओं के लेखक अमेरिकी, यूरोपीय तथा चीन, वर्मा, जापान के लेखकों से भी हीन हैं, कैसे ?
4.भारत का सुशिक्षित समाज कौन – सा साहित्य पढ़कर संतुष्ट हो जाता है ?
5.भारतीय भाषाओं के साहित्य के प्रति समाज के किस वर्ग में की भावना है ?

22. गांधी जी अपने हर कार्य को गरिमामय मानते हुए किया. वे अपने सहयोगियों को श्रम की गरिमा की सीख दिया करते थे. दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों के लिए संघर्ष करते हुए उन्होंने सफाई करने जैसे कार्य को भी कभी नीचा नहीं समझा और इसी कारण स्वयं अपनी पत्नी कस्तूरबा से भी उनके मतभेद हो गए थे.
बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया. सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ के माध्यम से पेड़ों को संरक्षण प्रदान किया. फादर डेमियन ऑफ मोलोकाई, मार्टिन लूथर किंग और मदर टेरेसा जैसी महान आत्माओं ने इसी सत्य को ग्रहण किया. इनमें से किसी ने भी कोई सत्ता प्राप्त नहीं की, बल्कि अपने जनकल्याणकारी कार्यों से लोगों के दिलों पर शासन किया. गांधीजी का स्वतंत्रता के लिए संघर्ष उनके जीवन का एक पहलू है, किंतु उनका मानसिक क्षितिज वास्तव में एक राष्ट्र की सीमाओं में बना हुआ नहीं था. उन्होंने सभी लोगों में ईश्वर के दर्शन किए. यही कारण था कि कभी किसी पंचायत तक के सदस्य नहीं बनने वाले गांधीजी की जब मृत्यु हुई तो अमेरिका का राष्ट्र ध्वज भी झुखा दिया गया था.
प्रश्न –
1.उपयुक्त शीर्षक दीजिए.
2.सभी महान आत्माओं ने किस सत्य को ग्रहण किया ?
3.गांधीजी का मानसिक क्षितिज एक राष्ट्र की सीमाओं में बना हुआ नहीं था – आशय स्पष्ट कीजिए.
4.गांधी जी की मृत्यु पर अमेरिका का राष्ट्रध्वज क्यों झुका दिया गया ?
5.‘स्वतंत्रता’ का विलोम लिखिए.

23. प्रसिद्ध कवि एवं नाटककार का कथन है – “समय को मैंने नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है.” मनुष्य का जीवन अमूल्य है, जो संसार में विशिष्ट स्थान रखता है. समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता. प्रकृति के समस्त कार्य नियत समय पर होते हैं. समय की गति बड़ी तीव्र होती है. जो उससे पिछड़ जाता है वह सदैव पछताता रहता है.
अतः आवश्यकता है समय के सदुपयोग की. समय वह धन है जिसका सदुपयोग न करने से वह व्यर्थ चला जाता है. हमें समय का महत्व तक ज्ञात होता है जब दो मिनट विलंब के कारण गाड़ी छूट जाती है. जीवन में वही व्यक्ति सफल हो पाते हैं जो समय का पालन करते हैं.
हमारे देश में समय का दुरुपयोग बहुत होता है. बेकार की बातों में व्यर्थ समय गंवाया जाता है. मनोरंजन के नाम पर भी बहुत गंवाया जाता है. बहुत से व्यक्ति समय गंवाने में ही आनंद का अनुभव करते हैं. यह प्रवृत्ति हानिकारक है. समय को खोकर कोई व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता. जूलियस सीजर के सभा में पांच मिनट देर से पहुंचने के कारण नेपोलियन को नेल्सन से पराजित होना पड़ा. समय किसी की बाट नहीं देखता.
प्रश्न –
1.‘समय को मैंने नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है.’ कथन का क्या तात्पर्य है ?
2.भारत में समय का दुरुपयोग किस प्रकार होता है ?
3.समय और धन का क्या संबंध है ?
4.नेपोलियन क्यों हार गया ?
5.गद्यांश का शीर्षक क्या हो सकता है ?

24. निंदा की ऐसी ही महिमा है. दो चार निंदकों को एक जगह बैठकर निंदा में निमग्न देखिए और तुलना कीजिये दो – चार ईश्वर – भक्तों से जो रामधुन गा रहे हैं. निंदकों की – सी एकाग्रता, परस्पर आत्मीयता, निमग्नता भक्तों से दुर्लभ है. इसलिए संतों ने निंदकों को ‘आंगन कुटी छवाय’ पास रखने की सलाह दी है. ईर्ष्या – द्वेष से प्रेरित निंदा भी होती है. इस प्रकार का निंदक बड़ा दुखी होता है. ईर्ष्या – द्वेष में चौबीसों घंटे जलता है और निंदा का जल छिड़क कर कुछ शांति अनुभव करता है. ऐसा निंदक बड़ा दयनीय होता है. अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की सक्षमता के चांद को देखकर सारी रात श्वास जैसा भौंकता है. ईर्ष्या – द्वेष से प्रेरित निंदा करने वाले को कोई दंड देने की जरूरत नहीं है. वह निंदक बेचारा स्वयं दण्डित होता है. निंदा का उद्गम ही हीनता और कमजोरी से होता है. मनुष्य अपनी हीनता से दबता है. वह दूसरों की निंदा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निक्रष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है.
प्रश्न –
1.निंदक को दंड देने की आवश्यकता नहीं होती, क्यों ?
2.निंदकों को भक्तों से श्रेष्ठ बताने का क्या कारण है ?
3.ईर्ष्या का क्या अर्थ है ?
4.निंदा करके निंदक क्या सिद्ध करना चाहता है ?
5.चांद को देखकर श्वान की तरह ………. . में चांद किसे कहा गया है ?